स्वदेशी यानी स्व का बोध

उमेश चतुर्वेदी

आज के दौर में स्वदेशी की जब भी चर्चा होती है, तो एक ही बोध है..अपनी माटी, अपनी माटी की उपज, अपनी संस्कृति और अपनी परंपराएं....इसके साथ ही स्वदेशी का एक और बोध होता है, अपने देश में बनी हुई चीजें...और उनका ही इस्तेमाल..स्वदेशी को लेकर स्थापित इस बोध या सोच की बुनियाद करीब एक सौ बीस साल पुरानी है। 

आज के दौर में स्वदेशी की जब भी चर्चा होती है, तो एक ही बोध है..अपनी माटी, अपनी माटी की उपज, अपनी संस्कृति और अपनी परंपराएं....इसके साथ ही स्वदेशी का एक और बोध होता है, अपने देश में बनी हुई चीजें...और उनका ही इस्तेमाल..स्वदेशी को लेकर स्थापित इस बोध या सोच की बुनियाद करीब एक सौ बीस साल पुरानी है। 1905 में जब अंग्रेजों ने सांप्रदायिक और धार्मिक आधार पर बंगाल का विभाजन किया, जिसे इतिहास में बंग-भंग के नाम से जाना जाता है, तब समूचे भारत में बंग-भंग के खिलाफ आंदोलन उठ खड़ा हुआ था। उस आंदोलन में विदेशों में बनी चीजों का बहिष्कार करना प्रमुख था। इसकी एक बड़ी वजह यह थी कि तब तक अंग्रेजों ने पारंपरिक भारतीय दस्तकारी और खेती-किसानी आधारित अर्थव्यवस्था को तहस-नहस करके एक तरह से आर्थिक तौर पर भी अपना गुलाम बना लिया था। अंग्रेजों की नजर में तब तक भारतीयों को दो कार्यों के लिए इस्तेमाल करते थे। पहला भारत से वे अपनी मिलों और अपने उद्योगों के लिए कच्चा माल ले जाते थे और ब्रिटेन में बनी चीजों को भारत के विशाल बाजार में खपाते थे। इसका असर यह हुआ कि भारत में बेरोजगारी फैल चुकी थी। अंग्रेजों की उन नीतियों की वजह से उन दिनों का मानस भी खदबदा रहा था। बंग-भंग ने इस खदबदाहट को जैसे स्वर दे दिया। स्वदेशी आंदोलन भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के सफलतम आंदोलनों के रूप में स्थापित हो गया। इस आंदोलन ने देश को जहां एक किया, वहीं अपनी उपज, अपनी पैदावार, अपनी दस्तकारी के प्रति लोगों को नए सिरे से सम्मोहित किया। उसी स्वदेशी आंदोलन की उपज खादी भी है। खादी तब से स्वदेशी का  प्रतीक  बनी हुई है।

भारत में स्वदेशी आंदोलन को नया  मौका पिछली सदी के नौंवे दशक में शुरू हुए उदारीकरण ने दिया। उदारीकरण और बहुराष्ट्रीयकरण ने भारत को स्वदेशी की तरफ नए सिरे से सोचने को प्रेरित किया। स्वदेशी जागरण मंच की स्थापना इसी दौर में हुई। इसी दौर में आजादी बचाओ आंदोलन भी जन्मा। आजादी बचाओ आंदोलन के संस्थापक इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्राध्यापक रहे बनवारी लाल शर्मा को लगा कि बहुराष्ट्रीयकरण और औद्योगिकरण के साथ ही विदेशी वस्तुओं से भारतीय बाजार के पट जाने के बाद भारत कालांतर में अपनी आजादी खो देगा। भारत को दो सौ बरसों तक गुलाम रखने वाले अंग्रेज देश में पहले व्यापारी बनकर ही आए। ईस्ट इंडिया कंपनी ने पहले भारत में कारोबार ही बढ़ाया और देखते ही देखते वह भारत के कारोबार के जरिए आर्थिकी पर कब्जा करने में सफल रही और फिर भारत की शासन व्यवस्था पर भी कब्जा कर लिया। बनवारी लाल शर्मा को ही कुछ ऐसा ही लगता था। स्वदेशी जागरण मंच के प्रेरक दत्तोपंत ठेंगड़ी जी की भी सोच वैसी ही थी। आंदोलन तो खूब चला, इन आंदोलनों की वजह से एक बार फिर भारत में स्व की सोच बढ़ी। स्व की ओर आकर्षण भी बढ़ा।

भारत में सदियों से वसुधैव कुटुंबकम् की अवधारणा रही है, लेकिन इस सोच में भारत का भाव किसी को गुलाम बनाने का भाव नहीं रहा है। जब हम किसी को परिवार मानते हैं तो उसमें किसी को गुलाम या अधीन बनाने का भाव नहीं होता। उदारीकरण और उसके जरिए आई संचार क्रांति की वजह से दुनिया के बारे में एक नई सोच विकसित हुई है। उसके मुताबिक, दुनिया को वैश्विक गांव यानी ग्लोबल विलेज की तरह माना जाने लगा है। लेकिन वैश्विक गांव की इस अवधारणा में समूचे गांव को बाजार और उपभोक्ता के रूप में देखा जाता है। इसलिए वैश्विक गांव और वसुधैव कुटुंबकम् की अवधारणा में बुनियादी अंतर साफ नजर आता है।

आज की वैश्विक स्थिति जैसी है, उसमें वैश्वीकरण के रूक पाने की गुंजाइश नहीं है। आज देशों की राजनीतिक सीमाएं भले ही मजबूत हुई हैं, लेकिन बाजार के नजरिए से पूरी दुनिया उपभोक्ता और उत्पादक  के खेमे में बंटी नजर आ रही है। मौजूदा वैश्विक व्यवस्था में राजनीतिक सीमाओं का अतिक्रमण भले ही आसान नहीं हो,लेकिन यह भी सच है कि बाजार और उपभोक्ता के नजरिए से अतिक्रमण की भरपूर गुंजाइश है। इसलिए पूरी दुनिया का सामान पूरी दुनिया में उपलब्ध है।

ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है कि आखिर अब स्वदेशी का मतलब क्या है? अब स्वदेशी का मतलब है, स्व यानी अपनत्व का भाव...यानी स्व यानी अपनी परंपरा, अपनी संस्कृति और अपनी देसी सोच को बचाए रखना। हमें अब ध्यान देना होगा कि उन्हीं विदेशी उत्पादों को हम अपनाएं, जिन्हें अपना देश उत्पादित नहीं करता लेकिन उसकी हमें जरूरत है। हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि जिन चीजों का हम उत्पादन नहीं कर सकते, उनके उत्पादन के लिए हमें तैयारी करती रहनी चाहिए। मौजूदा केंद्र सरकार की मेक इन इंडिया और मेड इन इंडिया और आत्मनिर्भर भारत की अवधारणा इसी स्व का विस्तार है। जिसमें अपना सम्मान भी है, अपने उपयोग पर भी जोर है और दोनों के बीच संतुलन भी है।

 

इंद्रप्रस्थ संवाद - नवीन अंक