राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक एवं प्रथम सरसंघचालक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार

IVSK

राष्ट्रों का पुनरुत्थान किसके सहारे होता है और किस आधार पर राष्ट्र वैभवशाली एवं अजेय बनते हैं? भूमि, जनसंख्या, धन, बुद्धिमत्ता और पराक्रम, इन सबसे परिपूर्ण राष्ट्रों के धूल में मिलने के उदाहरण इतिहास में उपलब्ध हैं। महान् साम्राज्यों के स्वप्न देखनेवाले समाज नामशेष हो गये। रोमन गये, यूनानी गये तथा बेबिलोनिया का तो कोई नामलेवा भी नहीं बचा। 

राष्ट्रों का पुनरुत्थान किसके सहारे होता है और किस आधार पर राष्ट्र वैभवशाली एवं अजेय बनते हैं? भूमि, जनसंख्या, धन, बुद्धिमत्ता और पराक्रम, इन सबसे परिपूर्ण राष्ट्रों के धूल में मिलने के उदाहरण इतिहास में उपलब्ध हैं। महान् साम्राज्यों के स्वप्न देखनेवाले समाज नामशेष हो गये। रोमन गये, यूनानी गये तथा बेबिलोनिया का तो कोई नामलेवा भी नहीं बचा। विमल एवं उत्कट देशभक्ति, परम्परा की अटूट श्रद्धा तथा समष्टि-जीवन का भाव समाज में सातत्य के साथ बनाये रखनेवाले महापुरुष जिस राष्ट्र में पैदा होते हैं वही स्वयं सुख से जीता है और सम्पूर्ण संसार को भी सुख और समाधान दे सकने में समर्थ होता है।

जग का सम्पूर्ण व्यवहार संघर्षमय है। इस संघर्ष में कभी जय तो कभी पराजय मिलती है। परन्तु जिस राष्ट्र में सांघिकता, देशभक्ति और विजय की आकांक्षा जाग्रत् रखनेवाले महान् पुरुष एक के बाद एक आगे आते रहते हैं, उसका पराभव वैसा ही अल्पकालिक रहता है जैसे पतझड़ में वृक्षों के पत्ते गिर जाने के उपरान्त थोड़े ही दिनों में वसन्त के आगमन के साथ वे पुनः सरसा जाते हैं। ऐसे जीवटवाले एंव पराक्रमी समाज ही संसार में अमर रहते हैं।

सदैव से हिन्दू समाज को अमरता का यह उत्तराधिकार प्राप्त हुआ है। मानव इतिहास के प्रथम पृष्ठ पर हमारा ही जयगान अंकित है और तब से आज की घड़ी तक हिन्दू समाज अनेक जय-पराजयों के बीच मानवता के प्रकाश-स्तम्भ के रूप में प्रबल आत्मविश्वास के साथ निरन्तर आगे बढ़ता हुआ दिखता है। वेदकाल से ईस्वी सन् की बीसवीं शताब्दी के मध्य तक अवतरित युग-प्रवर्तक एवं कर्तृत्वशाली नररत्नों का पुण्य प्रताप ही हमारी इस परम्परा की संचालक शक्ति है। पतन की अवस्था में भी राष्ट्र के चैतन्य को जगानेवाले भारत माता के  ऐसे ही सपूत महापुरुष का नाम है डॉक्टर केशव बळिराम हेडगेवार।

‘हेडगेवार’ कुलनाम यद्यपि मूलतः तैलंग है। तेलंगाना में कन्दकुर्ती नाम का गाँव इस कुल का मूल स्थान है। लगभग दो सौ वर्ष पूर्व बळिरामपन्त हेडगेवार के पितामह नरहर शास्त्री वहाँ से नागपुर आये और तब से उसकी अगली दो-तीन पीढ़ियाँ नागपुर में ही बीतीं।

वेदमूर्ति बळिराम पन्त हेडगेवार एवं रेवतीबाई को कुछ छः सन्तानें हुई। सबसे बड़े बेटे का नाम महादेव था। उसकी पीठ पर दो लड़कियाँ हुई। सुख, समाधान और संतोष से भरे हुए इस कुटुम्ब में शक सम्वत 1811 की चैत्र सुदी प्रतिपदा को केवल साढ़े तीन घड़ी के शुभ मुहूर्त के वर्षप्रतिपदा के दिवस प्रातःकाल सौभाग्यवती रेवतीबाई को एक और पुत्ररत्न प्राप्त हुआ। उस दिन रविवार था जो कि प्रचण्ड तेज की राशि भगवान् सूर्य का वार है। अंग्रेजी गणना से यह दिन 1889 ई. स. की 1 अप्रैल आता है। भोंसलों की राजधानी नागपुर में विजय की गुढी (वर्षप्रतिपदा के दिन महाराष्ट्र में प्रत्येक घर के ऊपर एक बाँस में सुन्दर वस्त्र एवं पात्र बांधकर खड़ा किया जाता है। इसे गुढी कहते हैं।) फहराते समय जन्मा हुआ यह बालक ही हिन्दू राष्ट्र का द्रष्टा एवं संघटन का स्रष्टा डॉक्टर केशवराव हेडगेवार था।

कहते हैं कि अपनी भावनाओं और आकांक्षाओं के अनुरूप बालक अपने माता-पिता को चुनता है। किन्तु शककर्ता शालिवाहन की विजय का स्मरण करानेवाली गुढी घर-घर पर फहराने की शुभ वेला में जन्म लेकर उस बालक ने तो मानों जन्मकाल को भी चुनकर अपनी मार्मिक समयज्ञता का ही परिचय दिया।

नागपुर, यवतमाल और पुणे से प्राथमिक शिक्षा के बाद 1910  में उन्होंने कोलकाता के नेशनल मेडिकल कॉलेज में दाखिला लिया. वहां से 1914 में चिकित्सा में डिग्री लेने के बाद वे नागपुर लौट आए. इन वर्षों में उनका संपर्क बंगाल के प्रमुख क्रांतिकारियों से हुआ. विदर्भ लौटने के बाद भी उन्होंने इन गतिविधियों को जारी रखा. 

डॉ. हेडगेवार ने कभी पेशेवर डॉक्टर के रूप में कार्य नहीं किया. वे देश की स्वतंत्रता और सेवा हित में चलाये जाने वाले कार्यक्रमों से जुड़कर अध्ययन करते रहे. डॉ. हेडगेवार ने इन वर्षों में भारत के इतिहास, वर्तमान और भविष्य को जोड़कर राष्ट्रीयता के मूल प्रश्न पर विचार किया. जिसके निष्कर्ष में भाऊजी काबरे, अण्णा सोहोनी, विश्वनाथराव केलकर, बाबूराव भेदी और बालाजी हुद्दार के साथ मिलकर 25 सितम्बर, 1925 (विजयादशमी) को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शुरुआत की गयी.  उस समय यह सिर्फ संघ के नाम से जाना जाता था. उसमें राष्ट्रीय और स्वयंसेवक शब्दों को छह महीनों बाद यानि 17 अप्रैल, 1926 में सम्मलित किया गया.

नागपुर के बाद 1929 में वर्धा और फिर पुणे में 1932 में संघ कार्य की शुरुआत हुई.  जल्दी ही महाराष्ट्र के अन्य शहरों में भी विस्तार होने लगा. जहाँ 1929 में शाखाओं की संख्या 37 थी, वह 1933 तक 125 हो गयी. डॉ. हेडगेवार एक पत्र के माध्यम से लिखते है, “राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कार्य हमने किसी एक नगर या प्रान्त के लिए आरम्भ नहीं किया हैं. अपने अखिल हिन्दुस्थान देश को यथाशीघ्र सुसंगठित करके हिन्दू समाज को स्वंसरक्षण एवं बलसंपन्न बनाने के उद्देश्य में इसे प्रारंभ किया गया हैं.   

अवकाश के दिनों में संघ प्रशिक्षण शिविरों में हजारों की संख्या में स्वयंसेवक आने लगे. दादा परमार्थ को लिखे एक पत्र में डॉ. साहब कहते है कि जहाँ संघ शाखा संभव हैं, जाने के लिए मेरी अनुमति हैं.  अतः उनके निर्देशन में देश भर में प्रवास होने लगे. श्री गुरूजी (पंजाब), भाउराव देवरस (लखनऊ), राजाभाऊ पातुरकर (लाहौर), वसंतराव ओक (दिल्ली), एकनाथ रानाडे (महाकौशल), माधवराव मूले (कोंकण), जनार्दन चिंचालकर एवं दादाराव परमार्थ (दक्षिण भारत), नरहरि पारिख एवं बापूराव दिवाकर (बिहार) और बालासाहब देवरस (कोलकाता) ने संघ कार्य का विस्तार करना शुरू किया.  परिणामस्वरूप, लगभग एक दशक बाद देशभर में 600 से अधिक शाखाएं और लगभग 70,000 स्वयंसेवक नियमित अभ्यास करने लगे थे.  1939 तक दिल्ली, पंजाब, बंगाल, बिहार, कर्नाटक, मध्य प्रान्त, बम्बई (वर्तमान महाराष्ट्र और गुजरात) में संघ शाखाएं लगनी शुरू हो गई. 

1935 में एक भाषण के दौरान डॉ. हेडगेवार कहते है, “कोई स्वयंसेवक आज अच्छी तरह से काम कर रहा है और कल वह अपने घर बैठ जाए. यदि किसी दिन कोई स्वयंसेवक शाखा में न उपस्थित न रहा, तो तुरंत उसके घर पहुंचकर कह क्यों नहीं आया इस बात की जानकारी लेनी चाहिए. नहीं तो दूसरे दिन भी वह शाखा में नहीं आएगा. तीसरे दिन उसके संघ स्थान जाने में संकोच होगा. चौथे दिन उसको कुछ डर सा मालूम होगा और पांचवें दिन वह टालमटोल करने लग जायेगा. अतः किसी स्वयंसेवक को शाखा से अनुपस्थित नहीं होने देना चाहिए. 

डॉ. हेडगेवार की भाषा और आचरण में सामान्यतः सरलता एवं आत्मीयता थी. चूँकि संघ का कार्य राष्ट्र का कार्य हैं इसलिए उन्होंने सभी को परिवार के सदस्य के रूप माना. परस्पर घनिष्ठता और स्नेह-संबंधों के आधार पर उन्होंने नियमित स्वयंसेवकों को तैयार किया. उनका विचार था कि किन्ही अपरिहार्य कारणों से संघ का कार्य अवरुद्ध न होने पाए. उनका उद्देश्य केवल संख्या बढ़ाने पर नहीं बल्कि वास्तव में हिन्दुओं को संगठित करना था. इसके लिए उन्होंने समझाया कि संघ का कार्य जीवनपर्यंत करना होगा. समाज में स्वाभाविक सामर्थ्य जगाना ही इसका अंतिम लक्ष्य होगा.

डॉ. साहब 15 वर्षों तक संघ के पहले सरसंघचालक रहे. इस दौरान संघ शाखाओं के द्वारा संगठन खड़ा करने की प्रणाली डॉ. साहब ने विचारपूर्वक विकसित कर ली थी. संगठन के इस तंत्र के साथ राष्ट्रीयता का महामंत्र भी बराबर रहता था. वे दावे के साथ आश्वासन देते थे कि अच्छी संघ शाखाओं का निर्माण कीजिये, उस जाल को अधिक्ताम घना बुनते जाइए, समूचे समाज को संघशाखाओं के प्रभाव में लाइए, तब राष्ट्रीय आज़ादी से लेकर हमारी सर्वांगीण उन्नति करने की सभी समस्याएं निश्चित रूप से हल हो जायेगी. 

 

Related Posts you may like

इंद्रप्रस्थ संवाद - नवीन अंक

लोकप्रिय