पिछड़े वर्ग में शिक्षा का बिगुल फुकने वाले महात्मा ज्योतिबा फुले

सीमा ओझा

ज्योतिबा का यह मानना था कि समाज परिवर्तन का जो काम एक स्त्री कर सकती है वह 10 शिक्षक भी नहीं कर सकते।

ज्योतिबा फुले ने समाज में व्याप्त ऊंच-नीच, छूआछूत व पाखंड के खिलाफ आवाज उठाने के साथ-साथ पिछड़े वर्ग में शिक्षा का बिगुल।

महाराष्ट्र के सतारा से 40 किलोमीटर दूर कूटगुण नामक गांव में ज्योतिबा फुले के परदादा रहते थे। थोड़ी सी कृषि भूमि में गुजर-बसर ना हो पाने के कारण आपका परिवार पुणे आ गया। 11 अप्रैल 1827 को पुणे में ज्योतिबा का जन्म हुआ। आपके पिता का नाम गोविंदराव व माता का नाम विमला बाई था। ज्योतिबा फुले में पढ़ने की लगन थी। वह दिन में पिता के फूलों की खेती में हाथ बटाते और रात में दीपक की रोशनी में पढ़ते थे।

उन दिनों बाल विवाह की प्रथा थी चौदह वर्ष की आयु में ज्योतिबा जी का विवाह सावित्रीबाई के साथ हो गया। ज्योतिबा का पढ़ाई की तरफ झुकाव देखकर उनके पिता ने उन्हें 14 वर्ष की उम्र में स्कोटिश मिशन की अंग्रेजी पाठशाला में दाखिला कराया। ज्योतिबा प्रत्येक परीक्षा में प्रथम आते। वह अध्यापकों के प्रिय बन गए।

शिवाजी की जीवनी पढ़कर उनमें साहस का संचार हुआ। पढ़ाई के साथ ही ज्योतिबा ने एकनाथ की भगवत ज्ञानेश्वरी व तुकाराम की गाथा तथा गीता, उपनिषद व पुराणों का भी अध्ययन किया।

अपने अध्ययन तार्किक चिंतन और मानवतावादी दृष्टिकोण के कारण आप अपने साथियों के प्रिय व आदर्श बन गए। आप रुढियों का विरोध करते थे। आपके अंदर देश प्रेम की भावना विकसित होती गई। ज्योतिबा का यह मानना था कि समाज परिवर्तन का जो काम एक स्त्री कर सकती है वह 10 शिक्षक भी नहीं कर सकते। इसलिए अपनी शिक्षा पूरी करते ही स्त्री शिक्षा को सर्वोपरि माना व सबसे पहले अपनी पत्नी सावित्रीबाई को ही पढ़ाने लगे। 14 जनवरी 1848 को पुणे के बुधवार पेठ में अपने सहयोगी के मकान में आपने कन्या पाठशाला की स्थापना की व सावित्रीबाई को इस पाठशाला में अध्यापिका बनाया।

धीरे-धीरे कन्या पाठशाला में 70 लड़कियां पड़ने लगी। इसके बाद पुणे शहर व देहात में कई पाठशालाएं स्थापित की। जिसके बाद ज्योतिबा ने 1 मई 1852 को अछूत बच्चों के लिए एक पाठशाला की स्थापना की।

ज्योतिबा के जीवन में ऐसे भी समय आए जब आपके पास खाने के लिए पैसे नहीं थे। ज्योतिबा व सावित्रीबाई को कई बार भूखा रहना पड़ा पर आप निराश नहीं हुए। आपका सेवा काम बढ़ता रहा। आपने महिला सेवा मंडल की स्थापना की। इसके बाद गरीब किसानों के बच्चों को भी पढ़ाई के लिए घर-घर जाकर आप उन्हें जागरूक करने लगे। 25 वर्ष की आयु में आपका यश चारों तरफ फैल गया।

ज्योतिबा ने अपने सामाजिक आंदोलन के लिए बहुत विरोध सहा, संघर्ष किया। अपने विचारों को फ़ैलाने के लिए आपने पुस्तकों की भी रचना की। आपने जनभाषा पर जोर दिया। पशुधन व किसानों के हित की बात की। बहुजन समाज के अपमान का दुख आपके ग्रंथ ‘गुलामगीरी” में स्पष्ट दिखता है। भाषा की शुद्धता के पक्षधर मराठी साहित्य में आपके अनगढ़ भदेश भाषा के क्रांतिकारी विचार ने मराठी साहित्य में एक नए युग का सूत्रपात किया।

1872 से 1882 तक आप पुणे नगर पालिका के सदस्य चुने गए। 60 वर्ष की आयु होने पर तथा समाज सुधारक के रूप में 40 वर्ष होने पर 11 मई 1888 को आपका नागरिक अभिनंदन कर आप को महात्मा की उपाधि दी गई।

 

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