धर्म की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाले राष्ट्रभक्त संन्यासी स्वामी श्रद्धानंद

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स्वामी श्रद्धानन्द जी ने 1922 में दिल्ली की जामा मस्जिद में भाषण दिया था। उन्होंने सबसे पहले वेद मंत्रों का पाठ किया और प्रेरक भाषण दिया। किसी मुस्लिम सभा में वेद मन्त्रों का पाठ करते हुए भाषण देने का सम्मान स्वामी श्रद्धानन्द को ही प्राप्त हुआ। यह विश्व के इतिहास में एक असाधारण क्षण था।

स्वामी श्रद्धानंद उपाख्य लाला मुंशीराम विज का जन्म फाल्गुन कृष्ण पक्ष, द्वितीया, 1912 विक्रम संवत तदनुसार 22 फरवरी 1856 ई सन में भारत के पंजाब प्रांत के जालंधर जिले के तलवन गांव में एक प्रसिद्ध और संपन्न खत्री परिवार में हुआ था। स्वामी जी को बचपन में मूल रूप से 'बृहस्पति' का नाम दिया गया था किन्तु उनके पिता उन्हें प्यार से मुंशी राम नाम से पुकारते थे और यही नाम उनकी पहचान बन गया। यह नाम तब तक प्रचलन में रहा जब तक उन्होंने 'संन्यास' में दीक्षित होकर स्वामी श्रद्धानंद नाम नहीं धारण कर लिया।

आर्यसमाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती की प्रेरणा से उन्होंने इस वकालत के पेशे को भी छोड़ दिया और सनातन धर्म उत्थान तथा राष्ट्र सेवा कार्य से जुड़ गए। वे भारतीय शिक्षा प्रणाली के महान पुरोधा और स्वामी दयानंद सरस्वती की शिक्षाओं का प्रचार-प्रसार करने वाले आर्य समाज के प्रचारक थे। उनके कार्यों में गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय जैसे शिक्षण संस्थानों की स्थापना, 1920 के दशक में हिंदू धर्म के संगठन (समेकन) और शुद्धि (पुनः धर्म वापसी) प्रमुख  थे, जिसमें उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और इसी लक्ष्य पर कार्य करते हुए बलिदान हो गए।

अछूतोद्धार की दिशा में स्वामी श्रद्धानंद का योगदान

स्वामी श्रद्धानंद ने अछूतों की सहायता करने के लिए कांग्रेस द्वारा श्रद्धानंद की वित्तीय मांगों को पूरा करने से इनकार करने के कारण उन्होंने कांग्रेस की उप-समिति से त्यागपत्र दे दिया था। यह राशि अछूतों के लिए कल्याण कार्यक्रमों को चलाने के लिए आवश्यक थी। इस प्रकरण को बाबासाहेब अम्बेडकर ने 'व्हाट कांग्रेस एंड गांधी हैव डन टू द अनटचेबल्स?' में कुछ इस प्रकार वर्णन किया है:

"क्या यह इसलिए था कि कांग्रेस की मंशा थी कि यह योजना बहुत साधारण होनी चाहिए जिसकी लागत दो से पांच लाख रुपये से अधिक न हो, लेकिन कांग्रेस यह अनुभव किया कि उस दृष्टिकोण से उन्होंने समिति में स्वामी श्रद्धानंद को सम्मिलित करके गलती कर दी थी। स्वामी ने एक बड़ी योजना के साथ उनका (धर्मांतरण और छुआछूत वालों का) सामना करने के लिए कहा जिसे कांग्रेस न तो स्वीकार कर सकती थी और न ही अस्वीकार कर सकती थी? कांग्रेस ने उन्हें संयोजक बनाने से मना करने और बाद में समिति को भंग करने तथा यह काम हिंदू महासभा को काम सौंपना बेहतर समझा होगा । परिस्थितियाँ इस तरह के निष्कर्ष के निकालने बिल्कुल विपरीत नहीं हैं। स्वामी जी अछूतों के सबसे महान और सबसे निष्ठावान पक्षधर थे। इसमें लेशमात्र भी संदेह नहीं है कि अगर उन्होंने समिति में काम किया होता तो वह बहुत बड़ी योजना तैयार करते।"

दिल्ली की जामा मस्जिद में वेद मंत्रों का पाठ करते हुए भाषण

स्वामी श्रद्धानन्द जी ने 1922 में दिल्ली की जामा मस्जिद में भाषण दिया था। उन्होंने सबसे पहले वेद मंत्रों का पाठ किया और प्रेरक भाषण दिया। किसी मुस्लिम सभा में वेद मन्त्रों का पाठ करते हुए भाषण देने का सम्मान स्वामी श्रद्धानन्द को ही प्राप्त हुआ। यह विश्व के इतिहास में एक असाधारण क्षण था।

स्वामी श्रद्धानन्द का धर्मांतरित हिन्दुओं के पुन: धर्म परिवर्तन का महान कार्य

हिंदूओं की तुलना में मुसलमानों की बढ़ती संख्या को रोकने के लिए उन्होंने परिवर्तित हिंदूओं को शुद्ध करने का एक पवित्र अभियान शुरू किया। इसके लिए उन्होंने आगरा में एक कार्यालय खोला। आगरा, भरतपुर, मथुरा आदि स्थानों पर कई राजपूत थे जो इस्लाम में परिवर्तित हो गए थे; लेकिन वे हिंदू धर्म में वापस आना चाहते थे। लगभग 5 लाख राजपूत हिंदू धर्म स्वीकार करने के लिए तैयार थे। इस अभियान का नेतृत्व स्वामी श्रद्धानन्द कर रहे थे। उन्होंने इस उद्देश्य के लिए एक विशाल सभा का आयोजन किया और उन राजपूतों को शुद्ध किया। उनके नेतृत्व में कई गांव शुद्ध हुए। इस अभियान ने हिंदुओं में एक नई चेतना, एक नई ऊर्जा और उत्साह पैदा किया और हिंदू संगठनों की संख्या में वृद्धि हुई। कराची से अजगरी बेगम नाम की एक मुस्लिम महिला को हिंदू धर्म में दीक्षित किया गया। इस घटना से मुसलमानों में कोहराम मच गया।

इस्लाम की प्राणघाती परंपरा का आखेट बने

अब्दुल रशीद नाम का एक मुस्लिम कट्टरपंथी 23 दिसंबर 1923 को दिल्ली में स्वामी जी के निवास पर पहुंच गया, उस समय स्वामी जी गंभीर निमोनिया के संक्रमण से जूझ रहे थे और बिस्तर में पड़े थे। उसने कहा कि वह स्वामी जी के साथ इस्लाम पर चर्चा करना चाहता है। उसने अपने आप को एक कंबल से ढक रखा था। उसने कंबल के अंदर बंदूक छिपा रखी थी। स्वामी जी की सेवा में लगे श्री धर्मपाल स्वामी जी के साथ थे। इसलिए वह कुछ नहीं कर सका। उसने एक गिलास पानी मांगा। उसे पानी पिलाने के बाद जब धर्मपाल गिलास लेकर बाहर गए तो रशीद ने स्वामीजी पर गोलियां चला दीं। धर्मपाल ने ही राशिद को पकड़ा था। जब तक लोग वहां एकत्रित हुए, स्वामी जी अपने प्राण त्याग चुके थे। इस प्रकार स्वामी श्रद्धानन्द जी इस्लाम की प्राणघाती परंपरा के शिकार हो गए। हालांकि उन्होंने वीरगति प्राप्त की और इतिहास में अपने नाम को अमर कर दिया। स्वामी श्रद्धानंद सशरीर भले ही हमारे बीच नहीं हैं किन्तु अपने क्रांतिकारी और समाज सुधार के योगदान के लिए वह आने वाली पीढ़ियों की स्मृतियों में सदैव जीवित रहेंगे ।

 

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