वर्ष 1893 स्थान अमेरिका के शिकागो की धर्म संसद और धर्म संसद में वक्ता स्वामी विवेकानंद जी। मंच से भाइयों एवं बहनों के उद्बोधन के साथ ही स्वामी विवेकानंद जी कहते हैं कि “मुझे गर्व है ऐसे देश का व्यक्ति होने का जिसने इस पृथ्वी के समस्त धर्मों और देशों के उत्पीड़ितों एवं सन्यासियों को आश्रय दिया”। शिकागो धर्म संसद में उन्हें बोलने के लिए 2 मिनट का समय दिया गया था परन्तु उन्होंने अपने संबोधन के इस प्रथम वाक्य से ही सबका दिल जीत लिया था।
वर्ष 1893 स्थान अमेरिका के शिकागो की धर्म संसद और धर्म संसद में वक्ता स्वामी विवेकानंद जी। मंच से भाइयों एवं बहनों के उद्बोधन के साथ ही स्वामी विवेकानंद जी कहते हैं कि “मुझे गर्व है ऐसे देश का व्यक्ति होने का जिसने इस पृथ्वी के समस्त धर्मों और देशों के उत्पीड़ितों एवं सन्यासियों को आश्रय दिया”। शिकागो धर्म संसद में उन्हें बोलने के लिए 2 मिनट का समय दिया गया था परन्तु उन्होंने अपने संबोधन के इस प्रथम वाक्य से ही सबका दिल जीत लिया था।
25 वर्ष की अवस्था में ही स्वामी विवेकानंद जी (जिनका मूल नाम नरेन्द्र था) ने गेरुआ वस्त्र धारण कर लिए थे। स्वामी जी अपने गुरु रामकृष्ण परमहंस से काफी प्रभावित थे जिनसे उन्होंने सीखा कि सारे जीवों में स्वयं परमात्मा का ही अस्तित्व हैं। इसलिए सेवा एवं दूसरे जरूरतमन्दो की मदद कर परमात्मा की भी सेवा की जा सकती है। रामकृष्ण की मृत्यु के बाद विवेकानन्द ने बड़े पैमाने पर भारतीय उपमहाद्वीप की यात्रा की और ब्रिटिश भारत में तत्कालीन स्थितियों का प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त किया। बाद में विश्व धर्म संसद 1893 में भारत का प्रतिनिधित्व करने, संयुक्त राज्य अमेरिका के लिए प्रस्थान किया। विवेकानन्द ने संयुक्त राज्य अमेरिका, इंग्लैंड और यूरोप में हिंदू दर्शन के सिद्धांतो का प्रसार किया और कई सार्वजनिक और निजी व्याख्यानों का आयोजन किया। भारत में विवेकानन्द जी के जन्मदिन को राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है।
विवेकानन्द का शिक्षा-दर्शन
स्वामी विवेकानन्द अंग्रेजों द्वारा चलाए जा रहे शिक्षा व्यवस्था के विरोधी थे। वह ऐसी शिक्षा चाहते थे जिससे बालक का संपूर्ण विकास हो सके। बालक की शिक्षा का उद्देश्य उसको आत्मनिर्भर बनाकर अपने पैरों पर खड़ा करना है। स्वामी विवेकानन्द जी कहते है, आप उस व्यक्ति को शिक्षित मानते हैं जिसने कुछ परीक्षाएं उत्तीर्ण कर ली हों तथा जो अच्छे भाषण दे सकता हो, पर वास्तविकता यह है कि जो शिक्षा जनसाधारण को जीवन संघर्ष के लिए तैयार नहीं करती, जो चरित्र निर्माण नहीं करती, जो समाज सेवा की भावना विकसित नहीं करती तथा जो शेर जैसा साहस पैदा नहीं कर सकती, ऐसी शिक्षा से क्या लाभ?
वह व्यावहारिक शिक्षा को व्यक्ति के लिए उपयोगी मानते थे। व्यक्ति की शिक्षा ही उसे भविष्य के लिए तैयार करती है, इसलिए शिक्षा में उन तत्वों का होना आवश्यक है, जो उसके भविष्य के लिए महत्वपूर्ण हो। स्वामी विवेकानन्द के अनुसार हमें कार्य के सभी क्षेत्रों में व्यावहारिक बनना पड़ेगा।
स्वामी जी कहते है कि ’हमें ऐसी शिक्षा चाहिए, जिससे चरित्र का गठन हो, मन का बल बढ़े, बुद्धि का विकास हो और व्यक्ति स्वावलम्बी बने।’
स्वामी विवेकानंद के शिक्षा पर विचार मनुष्य-निर्माण की प्रक्रिया पर केन्द्रित हैं, न कि महज़ किताबी ज्ञान पर। एक पत्र में वे लिखते हैं “शिक्षा क्या है? क्या वह पुस्तक-विद्या है? नहीं! क्या वह नाना प्रकार का ज्ञान है? नहीं, यह भी नहीं। जिस संयम के द्वारा इच्छाशक्ति का प्रवाह और विकास वश में लाया जाता है और वह फलदायक होता है, वह शिक्षा कहलाती है।“ शिक्षा का उपयोग किस प्रकार चरित्र-गठन के लिए किया जाना चाहिए, इस विषय में विवेकानंद कहते हैं, “शिक्षा का मतलब यह नहीं है कि तुम्हारे दिमाग़ में ऐसी बहुत-सी बातें इस तरह ठूँस दी जायँ, जो आपस में, लड़ने लगें और तुम्हारा दिमाग़ उन्हें जीवन भर में हज़म न कर सके। जिस शिक्षा से हम अपना जीवन-निर्माण कर सकें, मनुष्य बन सकें, चरित्र-गठन कर सकें और विचारों का सामंजस्य कर सकें, वही वास्तव में शिक्षा कहलाने योग्य है। यदि तुम पाँच ही भावों को समझकर उसके अनुसार जीवन और चरित्र गठित कर सकते हो तो तुम्हारी शिक्षा उस आदमी की अपेक्षा बहुत अधिक है, जिसने एक पूरी की पूरी लाइब्रेरी ही कण्ठस्थ कर ली है।“
देश की उन्नति फिर चाहे वह आर्थिक हो या आध्यात्मिक स्वामी जी उसमें शिक्षा की भूमिका केन्द्रिय मानते थे।

डॉ. शब्द प्रकाश 




