लाल किले का ऐतिहासिक मुकदमा - लाल किला ट्रायल

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5 नवंबर 1945 से 31 दिसंबर 1945 में संयुक्त रुप से कर्नल प्रेम सहगल, कर्नल गुरुबख्श सिंह ढिल्लो और मेजर शहनवाज खान पर लाल किले में मुकदमा चलाया गया।

देश की आजादी के लड़े गए मुकदमों में लालकिला मुकदमा ऐसा था जो आजाद हिंद फौज के सिपाहियों पर किया गया था। नेताजी सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व में बनी आजाद हिंद फौज जाति और धर्म से परे थी। नेताजी का एकमात्र उद्देश्य भारत माता को आजाद कराना और विदेशी ताकतों पर निर्णायक चोट करना था। दूसरे महायुद्ध के बाद जब जापान की तबाही से जर्मनी ने समर्पण कर दिया था, जर्मनी जापान के साथ युद्ध कर रहा था। उस समय आजाद हिंद फौज के सिपाही इंग्लैंड के विरोध में थे। अंग्रेजों ने आजाद हिंद फौज के अफसरों को दंडित करने का काम शुरू किया। बहुत से सिपाहियों को मार डाला गया। बहुतों को बंदी बनाकर भारत लाया गया। ब्रिटिश सरकार ने उन्हें देशद्रोही करार दिया था। आजाद हिंद फौज के बहुत सिपाहियों को मृत्युदंड दिया जा चूका था और बहुत से सिपाहियों दंडित करने का काम किया जा रहा था।

5 नवंबर 1945 से 31 दिसंबर 1945 में संयुक्त रुप से कर्नल प्रेम सहगल, कर्नल गुरुबख्श सिंह ढिल्लो और मेजर शहनवाज खान पर लाल किले में मुकदमा चलाया गया। बहादुर शाह जफर के बाद लाल किले में चलने वाला यह देश का दूसरा सबसे ऐतिहासिक मुकदमा था। आजाद हिंद फौज के पंजाब रेजीमेंटे के कैप्टन प्रेम सहगल पर आरोप था कि उन्होंने ब्रिटिश सम्राट के विरुद्ध युद्ध छेड़ने का काम किया। कर्नल ढिल्लो पर बर्मा में हरीसिंह की हत्या का आरोप लगाया गया। इस मुकदम में आईपीसी की अनेक धाराओं और इंडियन आर्मी एक्ट 1941 का उपयोग किया गया था। मुकदमे में जिरह के दौरान शहनवाज खान ने बोला कि सम्राट एवं देश में से मुझे किसी एक को चुनना था मैंने देश के प्रति निष्ठा को निभाया। कर्नल सहगल ने भी मुकदमे को गैर कानूनी करार दिया था। तीनों लोगों ने कहा कि उन्होंने युद्ध के सभी नियमों का पालन किया था। सोलह वकीलों की टीम इन तीनों अफसरों की पैरवी कर रही थी। वकीलों में जवाहर लाल नेहरू, कर्नल हरी लाल वर्मा और रामपुर राज्य के प्रधानमंत्री तेजबहादुर सप्रू और भूलाभाई देसाई शामिल थे। तीनों अभियुक्तों पर युद्ध छेड़ने का आरोपी बनाया गया था। मगर सुनवाई के दौरान शहनवाज खान को हत्या करने के लिए उकसाने, ढिल्लो को हत्या करने और कर्नल सहगल को उकसाने के आरोप में बरी कर दिया गया। मगर तीनों को देश से निकालने, नौकरी से बर्खास्त करने और सरकारी भत्ते रोकने आदेश दिया गया। यह फैसला 3 जनवरी 1946 को गजेट ऑफ इंडिया में छपा गया। मगर बाद में देश निकाले जाने की प्रावधान हटा दिया गया।

इस ऐतिहासिक मुकदमे ने पूरे भारत की जनता में देश के प्रति जागृति की भावना भर दी थी। सारे देश की सहानुभूति इन तीनों अफसरों के साथ थी। सेना में विद्रोह हो रहा था। विशाखापटनम में भारतीय नौसेना के जवानों ने विद्रोह कर दिया। उन्हें भी अपने दमन का डर लग रहा था। इस तरह से सारे देश में अशांति का माहौल बनता जा रहा था। जिसके बाद दुनिया के अनेक देश कहने लगे कि भारत को आजादी नेताजी सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिंद फौज के कारण मिली। ब्रिटिश सरकार ने पहले मुकदमें में सेना सामूहिक विद्रोह को देखकर दूसरे चरण में मुकदमे पर रोक लगा दी थी। दूसरे मुकदमें में सेना के अनेक सिपाहियों को दंडित किया जाना था। इस ऐतिहासिक मुकदमे ने सारे देश को एक साथ खड़ा कर दिया था। सारा देश एक साथ अंग्रेजों के विरोध में सड़क पर निकल आया था। सड़कों पर एक ही नारा गूंज रहा था “लाल किले से आई आवाज-सहगल ढिल्लो शहनवाज”। आजाद हिंद फौज के सिपाहियों पर चलाए गए इस मुकदमे में एक साल बाद देश को आजादी प्राप्त हो गई। उसी समय से देशभर की जनता में आजाद हिंद फौज और नेताजी सुभाष चंद्र बोस के प्रति अपार स्नेह उमड़ पड़ा। उसी समय से नेताजी आज तक भारत भर के लोगों की हृदय में बसे है जिनकी स्मृति सदियों तक रहेगी।

 

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