अनेक लोग स्वयं को शिक्षित और प्रगतिशील दिखाने के चक्कर में अपने हिन्दू प्रतीकों और नामों की उपेक्षा करते दिखते हैं। इसे स्पष्ट करने के लिए परमपूज्य श्री गुरुजी ने एक बार यह कथा सुनायी।

शिक्षित कौन ?
अनेक लोग स्वयं को शिक्षित और प्रगतिशील दिखाने के चक्कर में अपने हिन्दू प्रतीकों और नामों की उपेक्षा करते दिखते हैं। इसे स्पष्ट करने के लिए परमपूज्य श्री गुरुजी ने एक बार यह कथा सुनायी।
गाँव में रहने वाले एक निर्धन सज्जन ने अनेक कष्ट उठाकर भी अपने बच्चों को पढ़ाया। सौभाग्य से उनका एकमात्र पुत्र पढ़-लिखकर उच्च अधिकारी
बन गया और एक बड़े शहर में उसकी नियुक्ति भी हो गयी। उचित समय पर उन्होंने पुत्र का विवाह किया। विवाह के बाद वह युवक पत्नी सहित शहर में ही रहने लगा।
दो साल इसी प्रकार बीत गये, एक दिन उन्हें समाचार मिला कि उनके बेटे के घर में पुत्र का जन्म हुआ है। वे बहुत प्रसन्न हुए तथा अपने पौत्र को देखने की इच्छा से शहर की ओर चल दिये। जिस समय वे अपने बेटे की कोठी पर पहुंचे, वह अपने मित्रों के साथ बैठा चाय पी रहा था। जब उसने अपने पिता को आते हुए देखा, तो वह घबरा गया।
उसने सोचा कि मेरे ये मित्र क्या सोचेंगे कि ऐसा गँवार और निर्धन व्यक्ति उसका पिता है। उसने एक नौकर को भेजा, जिससे वह पिताजी को पिछले दरवाजे से अंदर ले आये। जब एक मित्र ने आंगतुक के बारे में पूछा, तो उसने बताया कि ये हमारा पुराना घरेलू नौकर है और गाँव से आ रहा है। उसके पिता ने यह सुन लिया। वे सबके सामने गुस्से में बोले : मैं कौन हूँ, यह इसकी माँ से पूछ लो। इतना कहकर वे अपना सामान उठाकर बिना पौत्र को देखे वापस चले गये।
इस घटना का संदेश है कि अच्छी शिक्षा वही है, जो संस्कारों को जीवित और जाग्रत रखे। ऐसी उच्च शिक्षा का क्या लाभ, जिससे व्यक्ति अपने धर्म, संस्कृति और परिवार से ही कट जाये।